Date: Dec 20th, 2024
(पुरुषोत्तम यानी – सर्वोच्च Divine स्वरूप)
इस अध्याय में कृष्ण अर्जुन की संसार के प्रति विरक्ति (dispassion) विकसित करने के लिए, उसे material संसार की प्रकृति को प्रतीकात्मक शैली में समझाते हैं। वे material world की तुलना एक उलटे पीपल के वृक्ष से करते हैं – जिसकी जड़ें ऊपर की तरफ हैं, और टहनियां नीचे की तरफ।

देहधारी आत्मा इस वृक्ष की उत्पत्ति का source है। यह कब से अस्तित्व में है और कैसे बढ़ रहा है, इसको समझे बिना आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में इस वृक्ष की शाखाओं के ऊपर नीचे घूमती रहती है। इस वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर होती हैं क्योंकि इसका source भगवान में है। सकाम कर्मफल इसके पत्तों के समान हैं, जो की नीचे की ओर उगते हैं । इस वृक्ष को प्राकृत शक्ति के तीनों गुणों (जो हमनें पिछले अध्याय में समझे)। ये गुण (रजस, तमस, सत्व) इन्द्रिय विषयों को जन्म देते हैं, जोकि वृक्ष की ऊपर लगी कोमल नयी कलियों के समान हैं। इन कलियों से हवा में ऊपर उगी जड़ें (aerial roots) फूट कर प्रसारित होती हैं, जिससे वृक्ष और अधिक विकसित होता है। इस अध्याय में इस analogy को बहुत details में describe किया गया है, जिससे कि यह ज्ञात हो सके कि कैसे देहधारी आत्मा इस वृक्ष के material अस्तित्व की nature की अज्ञानता के कारण सदा सदा से संसार के बंधनो में फंसी रहकर material जगत के कष्ट सहन कर रही है।
इसलिए कृष्ण समझाते हैं कि dispassion की कुल्हाड़ी से इस वृक्ष को काट डालना चाहिए। तब फिर हमें वृक्ष के आधार की खोज करनी चाहिए जोकि स्वयं परमेश्वर हैं।
इस अध्याय का end, क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम शब्दों की व्याख्या के साथ होता है।
क्षर = material जगत की नश्वर (destructible) वस्तुएँ।
अक्षर = जो destroy नहीं हो सकता = भगवान के लोक में निवास करने वाली मुक्त आत्माएँ।
पुरुषोत्तम = दिव्य सर्वोच्च व्यक्तित्व, जो संसार का नियम बनाने वाला, और उसको नियमों के अनुसार चलाने वाला।
इस अध्याय को समझने के लिए, लीजिये एक और छोटी सी कहानी – “उल्टा वृक्ष और जीवन का रहस्य”
एक बार एक बहुत सलोना और समझदार युवा अपने पिता के पास गया और पूछा, “Papa, यह संसार और हमारा जीवन कैसा है? क्या इसका कोई रहस्य है?”
पिता ने मुस्कराते हुए कहा, “चलो, आज हम साथ में घूमने चलते हैं।”
पिता ने बेटे को एक विशाल झील के पास ले जाकर कहा, “देखो, झील के पानी में तुम्हें क्या दिखता है?”
बेटे ने झील में झाँककर देखा और बोला, “Papa, मुझे एक वृक्ष का reflection दिखाई दे रहा है। वह उल्टा है – जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर।”
बेटे ने उत्सुक होकर पूछा, “इस वृक्ष का क्या अर्थ है?”
पिता ने समझाना शुरू किया:
वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर हैं – यह जड़ें परमात्मा को दर्शाती हैं। भगवान ही इस संसार रूपी वृक्ष का आधार हैं। जड़ें बताती हैं कि हर जीवन का मूल स्रोत ईश्वर में है।
शाखाएँ और पत्ते नीचे की ओर हैं – यह संसार की भौतिक इच्छाओं, कर्मों, और सुख-दुःख का प्रतीक है।
शाखाएँ – विभिन्न कर्मों और इच्छाओं का विस्तार करती हैं।
पत्ते – ज्ञान और धर्म के प्रतीक हैं, जो हमें जीवन को समझने में मदद करते हैं।
फल – यह कर्मों के फल हैं, जो सुख और दुःख के रूप में मिलते हैं। अच्छे कर्म मीठे फल देते हैं और बुरे कर्म कड़वे।
वृक्ष का उल्टा होना – इसका अर्थ है कि संसार का वास्तविक आधार ऊपर (परमात्मा) है, लेकिन मनुष्य इसे भौतिक संसार में उलझकर भूल जाता है। जो नीचे की शाखाओं (इच्छाओं और भोगों) में फँस जाता है, वह मोक्ष से दूर हो जाता है।
बेटे ने पूछा, “Papa, इस उलझन से कैसे निकलें?”
पिता ने कहा, “इस संसार रूपी वृक्ष को केवल ‘वैराग्य’ (असक्ति) और ‘ज्ञान’ की तलवार से काटा जा सकता है।”
वैराग्य की तलवार – भोग और इच्छाओं से ऊपर उठकर ईश्वर का स्मरण करना।
ज्ञान की तलवार – यह समझना कि यह संसार अस्थायी है और परमात्मा ही वास्तविक हैं।
जो इस वृक्ष को काटकर ऊपर की ओर जाता है, वह ‘परमधाम’ पहुँचता है। परमधाम वह स्थान है, जहाँ न पुनर्जन्म होता है और न मृत्यु। वहाँ केवल ever-lasting शांति और आनंद है।”
बेटे ने पिता से कहा, “अब मैं समझ गया कि यह संसार माया और मोह का जाल है। मैं अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर, भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर चलूँगा।”

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