Chapter 5 – कर्म संन्यास योग

Date: Dec 10th, 2024

5th Chapter में संन्यास के मार्ग की तुलना कर्मयोग के मार्ग के साथ की गयी है।

अर्जुन ने कृष्ण से पूछा – संन्यास की सराहना की जाती है, पर आपने मुझे भक्तियुक्त कर्मयोग का पालन करने को कहा । यह कुछ confusing लगा । Please do not give me choices. निश्चित रूप से यह बताएं कि इन दोनों में से कौन सा एक मार्ग अधिक लाभदायक है।

कृष्ण कहते हैं –
दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं और हम इनमें से किसी एक को choose कर सकते है।

लेकिन कर्म का त्याग तब तक पूर्णरूप से नहीं किया जा सकता, जब तक मन पूरी तरह शुद्ध न हो जाये। मन की शुद्धि, भक्ति के साथ कर्म करने से ही प्राप्त होती है। इसलिए कर्मयोग ज़्यादातर लोगों के लिए best है। कर्मयोगी अपने सांसारिक responsibilities को ठीक से निभाते हुए, अपने कर्म फलों की आसक्ति का त्याग कर उन्हें भगवान को अर्पित करते हैं। इस प्रकार से वे पाप से उसी प्रकार से अप्रभावित रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पुष्प का पत्ता जल में तैरता है किन्तु जल उसे स्पर्श नहीं कर पाता। वे न तो स्वयं को कर्म का कर्ता और न ही कर्म का भोक्ता मानते हैं। वे ब्राह्मण, गाय, हाथी, और कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले चांडाल तक को एक समान दृष्टि से देखते हैं।

ऐसे सच्चे संत, भगवान की qualities को अपने भीतर विकसित करते हैं और परम सत्य में स्थित हो जाते है।

यह chapter संन्यास के मार्ग का भी वर्णन करता है। संन्यासी अपने मन, इन्द्रियों और बुद्धि को नियंत्रित करने के लिए तपस्या करते हैं। इस प्रकार से वे बाहरी सुख के विचारों को छोड़ कर – इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। तब फिर वे भगवान की भक्ति के साथ अपनी तपस्या को सम्पूर्ण करते हैं और long-term शांति प्राप्त करते हैं।

केवल अज्ञानी ही संन्यास को कर्मयोग से different कहते हैं| जो वास्तव में ज्ञानी हैं, वे यह कहते हैं कि इन दोनों में से किसी भी मार्ग follow करने से वे दोनों का फल प्राप्त कर सकते हैं।

कर्मयोग में belief रखने वाले हमेशा देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, चलते-फिरते, सोते हुए, श्वास लेते हुए, बोलते हुए, त्यागते हुए, ग्रहण करते हुए और आंखें खोलते या बंद करते हुए – हमेशा यह सोचते हैं- ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ और दिव्य ज्ञान के आलोक में वे यह देखते हैं कि physical senses केवल अपने विषयों में ही active रहती हैं।

संन्यासी भी जो continuous practice से क्रोध और काम वासनाओं पर विजय पा लेते हैं एवं जो अपने मन को वश में कर सकते हैं, वे इस जन्म में और परलोक में भी माया शक्ति के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

Chapter 5 के end में कृष्ण कहते हैं –

पाँचों इंद्रियों और सुख के विषयों का विचार न कर, अपनी दृष्टि को भौहों के बीच के स्थान में स्थित करो। Inhale और Exhale को balance करते हुए इन्द्रिय, मन और बुद्धि को (mind, body, senses) संयमित करो । ऐसा करने से कामनाओं और भय से सदा के लिए मुक्त हो जाओ।

This is exactly what an Olympic athlete, or a brilliant student does before each competition, and each test.

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