Chapter 13: क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

Date: Dec 18th, 2024

(योग द्वारा क्षेत्र और क्षेत्र के ज्ञाता के विभेद को जानना)

आज हम गीता का तीसरा खंड (section) शुरू करते है। इस section के छः अध्यायों में ज्ञान की व्याख्या की गयी है।
यह दो शब्दों क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) से परिचित कराता है। यह अध्याय आत्मा, शरीर, प्रकृति और पुरुष (ईश्वर) के बीच के संबंध को समझाने के लिए महत्वपूर्ण है।

आप में से कुछ सोच रहे होंगे – अगर कर्मयोग और भक्तियोग समझ में आ गया, तो ज्ञानयोग का क्या महत्त्व है?

इस रहस्य को ऐसे समझिये – “हम जो सोचते हैं वही हमारे सामने परिणाम के रूप में आता है” इसलिए हम जैसे सोचते हैं वैसे बन जाते हैं।
योग वशिष्ठ में वशिष्ट ऋषि ने कहा था – “मन ही ब्रह्म है”, यानी “विचार ही सभी कर्मों का जनक है।” इसलिए हमें शुभ एवं उचित विचारों और कर्मों से अपने शरीर को पोषित करने की विधि सीखनी चाहिए। अगर हमारे मन में कुछ परेशानी है, तो पूरा संसार परेशानी का कारण लगता है। और जब हमारा मन खुश, तो हर जगह पे ख़ुशी का स्त्रोत नज़र आता है। जिस प्रकार किसान खेत में बीज बो कर खेती करता है। इसी प्रकार से हम अपने शरीर को शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित करते हैं और परिणाम स्वरूप अपना भाग्य बनाते हैं। इसके लिए शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के भेद को जानना आवश्यक है।

ज्ञान द्वारा “ज्ञेय” (यानी जानने लायक) क्या हैं? जिसे जानने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञेय (ईश्वर) अविनाशी, अनंत, और परम सत्य हैं।


श्रीकृष्ण बताते हैं कि शरीर को “क्षेत्र” कहा जाता है और आत्मा (जो शरीर में स्थित है) को “क्षेत्रज्ञ” कहा जाता है।
क्षेत्र (शरीर) पाँच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), मन, बुद्धि, अहंकार, और पाँच ज्ञानेन्द्रियों से मिलकर बना है।
इसके अलावा सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, चेतना और धैर्य भी इसमें शामिल हैं।

सच्चे ज्ञान के 10 गुण या लक्षण हैं:
1 – अहंकार का त्याग।
2 – अहिंसा (किसी को कष्ट न देना) – ध्यान दीजिये, अहिंसा सिर्फ physical violence नहीं बल्कि किसी भी तरह का कष्ट देना हैं (even harsh criticism, for an example)
3 – क्षमा और सरलता।
4 – गुरु के प्रति भक्ति।
5 – पवित्रता और संयम।
6 – इन्द्रियों का नियंत्रण।
7 – अनित्य (ever-changing) संसार के प्रति वैराग्य।
8 – जन्म, मृत्यु, और बुढ़ापे के दुखों का चिंतन।
9 – निरंतर आत्मा और परमात्मा के ज्ञान का अभ्यास।
10 – सच्चे ज्ञान की खोज और भक्ति का अभ्यास।

कृष्ण बताते हैं कि वास्तव में प्रकृति (material world) और आत्मा दोनों अनादि (ever-existent) हैं।
प्रकृति से सृष्टि का निर्माण होता है, जबकि आत्मा भोग का अनुभव करता है। आत्मा, सब कुछ देखने वाला और सब कुछ का साक्षी (witness) है।

हर प्राणी के शरीर में परमात्मा (ईश्वर) स्थित हैं। इस ईश्वर को जानने के कई मार्ग हैं। कुछ लोग ध्यान और साधना के द्वारा ईश्वर को जानते हैं। कुछ लोग ज्ञान के मार्ग से, और कुछ कर्म के माध्यम से ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं। ज्ञानी व्यक्ति यह समझता है कि ईश्वर ही इस संसार के कर्ता हैं, और वे ही इसे चलाते हैं।

इस chapter को आप ऐसे एक कहानी के माध्यम से भी समझ सकते हैं –

मानिये एक सुंदर राजमहल (शरीर) है, जो विशाल, भव्य और आकर्षक है। यह महल पाँच दरवाजों (इंद्रियाँ) से घिरा हुआ है। इसके अंदर कई कक्ष हैं – मन, बुद्धि, और अहंकार के कमरे। महल का मालिक (राजा) आत्मा है, जो सदा शांत, ज्ञानी और स्थिर है। राजा का उद्देश्य सत्य का अनुभव करना है, परंतु वह इस महल के आकर्षण में फँस जाता है।

राजमहल की संरचना पाँच तत्वों से बनी है:
पृथ्वी
– शरीर की ठोस संरचना (हड्डियाँ)।
जल – रक्त और रस।
अग्नि – शरीर की ऊर्जा और ताप।
वायु – श्वास और प्राण।
आकाश – शरीर के भीतर का खाली स्थान।


महल के कमरे – मन, बुद्धि, और अहंकार – हर समय हलचल मचाते हैं। मन सोचता है, बुद्धि निर्णय करती है, और अहंकार कहता है, “मैं ही राजा हूँ!”।

लेकिन असल में इस महल का राजा आत्मा है, जो क्षेत्रज्ञ (शरीर का जानने वाला) है। आत्मा शांत और निश्चल है। वह केवल देखता है कि यह शरीर (महल) किस प्रकार कार्य करता है, और जन्म नहीं लेता, कभी मरता नहीं।

महल (शरीर) नश्वर है; एक दिन यह मिट जाएगा। लेकिन राजा (आत्मा) अमर है और उसका असली घर परमात्मा का धाम है। जो आत्मा और परमात्मा के बीच का संबंध जान लेता है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।

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