Date: Dec 17th, 2024
(Note – अध्याय 12 और 15 गीता के सबसे छोटे अध्याय है। इन दोनों chapters में सिर्फ 20 श्लोक है – यानी अर्जुन का सवाल और कृष्ण का जवाब बहुत straight-forward हैं । ध्यान से समझियेगा। कहीं चूक ना हो जाए। कृष्ण इस अध्याय में भक्ति के बारे में एक बहुत important question का clear-cut उत्तर देते हैं।)
अर्जुन का सवाल है – जो लोग साकार रूप में आपकी पूजा करते हैं और जो निराकार रूप में ध्यान करते हैं, उनमें से कौन अधिक श्रेष्ठ है?
(यानी – मूर्ति पूजा, photos, मंदिरों का क्या महत्त्व है, अगर भगवान् निराकार हैं। )
जवाब में कृष्ण कहते है –
साकार और निराकार, दोनों रूप की आराधना सही हैं। वे जो अपने मन को मुझमें स्थिर करते हैं और सदैव दृढ़तापूर्वक पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी भक्ति में रहते हैं, मैं उन्हें सर्वश्रेष्ठ योगी मानता हूँ।
जिन लोगों का मन भगवान के अव्यक्त रूप पर आसक्त होता है उनके लिए भगवान की अनुभूति (experience) का मार्ग बहुत मुश्किल और self-doubts से भरा होता है। इसीलिए मनुष्य जीवन में साकार रूप का ध्यान सरल है। अव्यक्त रूप की उपासना देहधारी जीवों के लिए अत्यंत मुश्किल होती है।
शारीरिक अभ्यास से श्रेष्ठ ज्ञान है, ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है, और ध्यान से श्रेष्ठ कर्म फलों का परित्याग है। ऐसे त्याग से शीघ्र मन को शांति प्राप्त होती है।
यदि तुम दृढ़ता से मुझ पर अपना मन स्थिर करने में असमर्थ हो तो worldly efforts से मन को अलग कर भक्ति भाव से निरंतर मेरा स्मरण करने का अभ्यास करो।
यदि तुम मेरा स्मरण करने का अभ्यास नहीं कर सकते, तब मेरी सेवा के लिए कर्म करने का अभ्यास करो।
यदि तुम सेवा में भी असमर्थ हो, तब अपने जो भी कर्म है उनके फलों की इच्छा का त्याग करो और सुख-दुख में समभाव रहो।
अगर अव्यक्त रूप की आराधना को मानो सीधा पर्वत शिखर पे helicopter ride से पहुँचने के बराबर है, तो साकार रूप की आराधना एक सीढ़ी के सामान है।
अगर आप भक्ति योग को ईश्वर के तरफ जाती इस सीढ़ी के रूप में देखें, तो –
नींव: साकार या निराकार, किसी भी रूप में भगवान को अपना मानो।
पहला पायदान: मन को भगवान् में स्थिर करो।
दूसरा पायदान: अभ्यास और निष्ठा से भक्ति करो।
तीसरा पायदान: यदि अभ्यास कठिन लगे, तो निस्वार्थ सेवा करो।
चौथा पायदान: कर्म के फल का त्याग करो।
मंज़िल: श्रद्धा, प्रेम, और समर्पण से भगवान के प्रिय बनो।
भक्त के 5 रत्न यह है –
प्रेम: सबके प्रति दया और मित्रता।
शांति: सुख-दुख में समानता।
त्याग: स्वार्थ और अहंकार का त्याग।
श्रद्धा: ईश्वर में अटूट विश्वास।
भक्ति: मन, वचन, और कर्म से भगवान का स्मरण।
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