ੴ
सतिनामु करता पुरखु
निरभउ निरवैरु अकाल मूरति
अजूनी सैभं गुरप्रसादि ॥
परमात्मा एक है। उसका नाम “सत्य” है। वह सब कुछ बनाने वाला और रचयिता है। वह निडर है, जिसे किसी से भय नहीं। वह किसी से वैर (दुश्मनी) नहीं रखता। वह समय और मृत्यु से परे है, सदा स्थायी है। वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त है। वह स्वयंभू है, स्वयं के बल से अस्तित्व में है। गुरु की कृपा से उसे समझा और अनुभव किया जा सकता है।
ईश्वर से जुड़ने के लिए हमें गुरु की कृपा, सच्चाई, और निस्वार्थ भक्ति की आवश्यकता है।
॥ जपु ॥
आदि सचु जुगादि सचु ॥
है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥
भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥
किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥
हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥
अगर कोई लाखों बार सोचता रहे या ध्यान करे, तो भी सिर्फ सोचने से ही आत्मा शुद्ध नहीं होती। सच्चाई और आत्मज्ञान सिर्फ विचार करने से नहीं आते; इसके लिए आचरण और अनुभव जरूरी है।
केवल मौन रहने से मन को शांति नहीं मिलती, भले ही कोई पूरी तरह ध्यान में मग्न हो जाए। असली शांति आंतरिक सत्य और प्रभु की इच्छा को समझने से आती है। लालच या इच्छाएं सिर्फ सांसारिक सुख-सामग्री इकट्ठा करने से शांत नहीं होतीं, भले ही कोई दुनिया भर की चीजें जमा कर ले। इच्छाओं को मिटाने के लिए आत्मिक संतोष जरूरी है। चाहे कोई लाखों तरह की चालाकियां और ज्ञान सीख ले, लेकिन ये सब मृत्यु के समय साथ नहीं जातीं। सांसारिक ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान है।
सच्चाई के मार्ग पर कैसे चला जाए और झूठ के पर्दे को कैसे तोड़ा जाए?
सच्चाई का मार्ग तभी संभव है जब हम ईश्वर की इच्छा (हुक्म) को समझें और उसके अनुसार चलें।
सब कुछ ईश्वर की मर्जी (हुक्म) से होता है। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए और उसके अनुसार अपने जीवन को ढालना चाहिए।
हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई ॥
हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥
इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि ॥
हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥
नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ॥२॥
जबकि कुछ लोग हमेशा भ्रम में (दुनिया के चक्र में) पड़े रहते हैं। सारी सृष्टि ईश्वर के हुकम के अधीन है; इसके बाहर कुछ भी नहीं है। हर चीज़ उसी के नियंत्रण में है। यदि कोई हुकम को समझ ले, तो उसके भीतर से अहंकार (मैं-मेरा) समाप्त हो जाता है।
गावै को ताणु होवै किसै ताणु ॥
गावै को दाति जाणै नीसाणु ॥
गावै को गुण वडिआईआ चार ॥
गावै को विदिआ विखमु वीचारु ॥
गावै को साजि करे तनु खेह ॥
गावै को जीअ लै फिरि देह ॥
गावै को जापै दिसै दूरि ॥
गावै को वेखै हादरा हदूरि ॥
कथना कथी न आवै तोटि ॥
कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥
देदा दे लैदे थकि पाहि ॥
जुगा जुगंतरि खाही खाहि ॥
हुकमी हुकमु चलाए राहु ॥
नानक विगसै वेपरवाहु ॥३॥
परमात्मा अपने हुक्म (आदेश) के अनुसार सब कुछ चलाते हैं। यह सब कुछ करने वाला परमात्मा बेपरवाह (मायाजाल से मुक्त) है और अपनी सृष्टि में आनंदित रहता है।
साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु ॥
आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारु ॥
फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु ॥
मुहौ कि बोलणु बोलीऐ जितु सुणि धरे पिआरु ॥
अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥
करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरु ॥
नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरु ॥४॥
सभी लोग उससे कुछ न कुछ मांगते हैं, “दे दो, दे दो” कहकर प्रार्थना करते हैं, और वह देने वाला सबको देता रहता है।
जब उसका दिव्य दरबार सामने प्रकट हो, तब हम उसके सामने क्या भेंट चढ़ाएं?
ऐसा कौन-सा शब्द बोलें जिससे वह प्रभु हम पर कृपा करें और हमें प्यार से अपना लें?
अमृत वेले (सवेरे) उठकर सच्चे नाम का सुमिरन करें और ईश्वर की महानता का विचार करें।
हमारे कर्मों से हमें यह जीवन (शरीर रूपी वस्त्र) मिलता है और उसकी कृपा से ही मोक्ष का द्वार खुलता है।
हे नानक! यह समझ लो कि सब कुछ उसी ईश्वर की इच्छा से होता है, वही सच्चा है।
थापिआ न जाइ कीता न होइ ॥
आपे आपि निरंजनु सोइ ॥
जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु ॥
नानक गावीऐ गुणी निधानु ॥
गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ ॥
दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ ॥
गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं गुरमुखि रहिआ समाई ॥
गुरु ईसरु गुरु गोरखु बरमा गुरु पारबती माई ॥
जे हउ जाणा आखा नाही कहणा कथनु न जाई ॥
गुरा इक देहि बुझाई ॥
सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥५॥
गुरु की शिक्षा को अपनाने, ईश्वर का गुणगान करने और प्रेमपूर्वक भक्ति करने से हमें सच्चा सुख और शांति प्राप्त होती है।
तीरथि नावा जे तिसु भावा विणु भाणे कि नाइ करी ॥
जेती सिरठि उपाई वेखा विणु करमा कि मिलै लई ॥
मति विचि रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी ॥
गुरा इक देहि बुझाई ॥
सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥६॥
जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ ॥
नवा खंडा विचि जाणीऐ नालि चलै सभु कोइ ॥
चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ ॥
जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के ॥
कीटा अंदरि कीटु करि दोसी दोसु धरे ॥
नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे ॥
तेहा कोइ न सुझई जि तिसु गुणु कोइ करे ॥७॥
वह एक छोटे कीड़े के समान ही रहेगा, जो दूसरों पर दोष मढ़ता रहता है। गुरु नानक देव जी कहते हैं कि ईश्वर ही निर्गुण (गुण रहित) को गुणवान बनाते हैं और गुणी लोगों को और गुण प्रदान करते हैं। ऐसा कोई नहीं जो खुद से भगवान को कोई गुण दे सके (भगवान सबसे ऊपर हैं, उन्हें किसी से कुछ भी प्राप्त करने की जरूरत नहीं)।
सिर्फ दुनिया में बड़ा नाम, लंबी उम्र और प्रसिद्धि होने से कुछ नहीं होता। अगर भगवान की कृपा नहीं मिली, तो सब व्यर्थ है। इंसान को घमंड नहीं करना चाहिए, क्योंकि सभी गुण और महानता परमात्मा से ही आते हैं।
Notes 1 –
समय को चार युगों में विभाजित किया गया है, जिसे महायुग कहा जाता है। प्रत्येक युग की अवधि अलग-अलग होती है, और यह देवताओं के वर्षों में मापी जाती है (1 देव वर्ष = 360 मानव वर्ष)।
चार युगों की अवधि:
- सत्य युग (कृत युग) – 4,800 देव वर्ष (1,728,000 मानव वर्ष)
- त्रेता युग – 3,600 देव वर्ष (1,296,000 मानव वर्ष)
- द्वापर युग – 2,400 देव वर्ष (864,000 मानव वर्ष)
- कलियुग – 1,200 देव वर्ष (432,000 मानव वर्ष)
महायुग की कुल अवधि: सत्य + त्रेता + द्वापर + कलि = 4,320,000 मानव वर्ष
वर्तमान में हम “कलियुग” में हैं, जिसकी शुरुआत 3102 ईसा पूर्व हुई थी और इसकी कुल अवधि 432,000 वर्ष है।
Note 2 –
नौ खंड (9 Khand) क्या हैं?
हिन्दू, जैन और प्राचीन भारतीय ग्रंथों में “नौ खंड” (9 Khand) का उल्लेख पृथ्वी या जगत के विभाजन के रूप में किया गया है। यह पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में विस्तार से मिलता है। नौ खंडों के नाम और विवरण:
- भारत खंड (Bharata Khand) – यह भारतवर्ष का क्षेत्र है, जिसे धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से पवित्र माना जाता है।
- किंपुरुष खंड (Kimpurusha Khand) – यह क्षेत्र देवताओं और दिव्य प्राणियों का निवास स्थान माना जाता है, इसे हिमालय के उत्तर का क्षेत्र कहा जाता है।
- हरि वर्ष खंड (Hari Varsha Khand) – यह भगवान विष्णु के भक्तों का निवास स्थान है और इसे एक आध्यात्मिक क्षेत्र माना जाता है।
- इलावृत खंड (Ilavrita Khand) – यह क्षेत्र मेरु पर्वत के चारों ओर स्थित माना जाता है, जिसे पृथ्वी का केंद्र कहा जाता है।
- रम्यक खंड (Ramyaka Khand) – यह एक सुंदर और रमणीय क्षेत्र है, जहाँ पुण्य आत्माएँ निवास करती हैं।
- हिरण्मय खंड (Hiranmaya Khand) – यह एक स्वर्ण भूमि मानी जाती है, जिसे महान आध्यात्मिक महत्व का क्षेत्र कहा गया है।
- उत्तर कुरु खंड (Uttarakuru Khand) – यह एक पौराणिक उत्तरी राज्य है, जिसका उल्लेख महाभारत और अन्य ग्रंथों में मिलता है।
- भद्राश्व खंड (Bhadrasva Khand) – यह क्षेत्र मेरु पर्वत के पूर्व में स्थित बताया गया है।
- केतुमाल खंड (Ketumala Khand) – यह क्षेत्र मेरु पर्वत के पश्चिम में स्थित माना जाता है।
महत्व और आध्यात्मिक अर्थ – ये नौ खंड जंबूद्वीप (हिन्दू ब्रह्मांडीय भूगोल के अनुसार पृथ्वी का एक द्वीप) के विभिन्न भाग हैं। हर खंड की अपनी विशेषता, संस्कृति, और आध्यात्मिक महत्व है। कुछ मान्यताओं के अनुसार, ये भौगोलिक क्षेत्रों का वर्णन हैं, जबकि अन्य लोग इन्हें आध्यात्मिक प्रतीक मानते हैं।
Note 3 –
हिंदू धर्म, संत परंपरा और भारतीय आध्यात्मिकता में “नौ खंड” (9 Khand) केवल भौगोलिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। कई संतों और ग्रंथों में इनका उल्लेख आध्यात्मिक यात्रा, आत्मा की उन्नति और चेतना के विभिन्न स्तरों के रूप में किया गया है। आध्यात्मिक नौ खंड (9 Khand) और उनका अर्थ:
- धर्म खंड (Dharma Khand) – यह धर्म और नैतिकता का क्षेत्र है, जहाँ व्यक्ति सही और गलत का बोध करता है।
- ज्ञान खंड (Gyaan Khand) – यहाँ व्यक्ति ज्ञान और आत्मबोध प्राप्त करता है, वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करता है।
- सत्संग खंड (Satsang Khand) – इस अवस्था में व्यक्ति संतों, गुरुओं और सच्चे साधकों के संगति में आता है, जिससे उसका मन शुद्ध होता है।
- भक्ति खंड (Bhakti Khand) – यहाँ आत्मा प्रेम और भक्ति में लीन होकर परमात्मा से जुड़ने का प्रयास करती है।
- सेवा खंड (Seva Khand) – व्यक्ति निःस्वार्थ सेवा में लीन होता है, जिसे “सेवा भाव” कहा जाता है।
- योग खंड (Yog Khand) – यह आत्मा की योग साधना और ध्यान के मार्ग पर बढ़ने की अवस्था है, जहाँ व्यक्ति आत्मसंयम और साधना को अपनाता है।
- शक्ति खंड (Shakti Khand) – इस स्तर पर साधक आंतरिक शक्ति (कुंडलिनी शक्ति) का जागरण करता है और चेतना के उच्च स्तरों को अनुभव करता है।
- शून्य खंड (Shunya Khand) – यहाँ साधक शून्यता या निर्वाण की स्थिति में पहुँचता है, जहाँ मन और शरीर का अहंकार समाप्त हो जाता है।
- परम खंड (Param Khand) या सच खंड या सत्य लोक – यह अंतिम अवस्था है, जहाँ आत्मा परमात्मा से एकत्व प्राप्त करती है और मोक्ष प्राप्त होता है।
ये आध्यात्मिक यात्रा के विभिन्न चरण हैं, जो साधक को ईश्वर की प्राप्ति और आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाते हैं। गुरुओं और संतों ने इन खंडों को साधना के स्तरों के रूप में बताया है, जिससे व्यक्ति सांसारिक मोह से मुक्त होकर उच्च चेतना प्राप्त कर सके। यह यात्रा भौतिक दुनिया से आध्यात्मिक विकास की ओर ले जाती है।
Note 4 –
शून्य खंड और महाशून्य दोनों गहरे ध्यान और आत्मा की यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। शून्य खंड एक उच्च अवस्था है, लेकिन महाशून्य उससे भी आगे का एक विशाल शून्य क्षेत्र है। महाशून्य में साधक को गहरे मौन और पूर्ण अंधकार का अनुभव होता है। यदि गुरु का मार्गदर्शन न मिले, तो साधक महाशून्य में फंस सकता है और आगे सचखंड तक नहीं पहुँच सकता। संत मत, सिख गुरुओं और योग परंपरा में बताया गया है कि महाशून्य से परे जाने के लिए गुरु की कृपा अनिवार्य है।
शून्य खंड और महाशून्य आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन दोनों पूरी तरह से एक जैसे नहीं हैं। इनका वर्णन संत मत, नाथ संप्रदाय, और सिख गुरुओं की शिक्षाओं में मिलता है।
शून्य खंड – यह एक आध्यात्मिक स्थिति है, जहाँ साधक मौन, शांति और खालीपन का अनुभव करता है लेकिन फिर भी सजग (Aware) रहता है। इसे संसार और उच्च आध्यात्मिक लोकों के बीच की अवस्था माना जाता है। यह माया (भौतिक संसार) और अहंकार (Ego) से परे जाने की स्थिति होती है। संत मत और नाथ संप्रदाय में इसे ध्यान और आत्म-साक्षात्कार का ऊँचा स्तर माना गया है। यहाँ साधक स्वयं को शरीर से अलग महसूस करता है लेकिन अभी भी परमात्मा से पूरी तरह नहीं जुड़ा होता। यह स्थिति आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण चरण है लेकिन अंतिम गंतव्य नहीं।
महाशून्य का अर्थ “महान शून्यता” या “विशाल शून्य” होता है। यह शून्य खंड से भी आगे का एक विशाल शून्य क्षेत्र है, जहाँ साधक पूर्ण शांति, अंधकार और मौन का अनुभव करता है। इसे आध्यात्मिक संसार और परम सत्य (Sach Khand) के बीच की सीमा माना जाता है। कुछ संत इसे एक भयावह अवस्था बताते हैं, क्योंकि यहाँ साधक को कुछ भी नहीं दिखाई देता, केवल गहरा अंधकार और मौन होता है। यदि कोई संत गुरु के मार्गदर्शन के बिना इस स्थिति में पहुँच जाता है, तो वह वहीं अटक सकता है और आगे नहीं बढ़ पाता। इसलिए, गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक होता है, जो आत्मा को महाशून्य से आगे सचखंड तक ले जा सके।
सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥
सुणिऐ धरति धवल आकास ॥
सुणिऐ दीप लोअ पाताल ॥
सुणिऐ पोहि न सकै कालु ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥८॥
सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ॥
सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ॥
सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद ॥
सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥९॥
सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ॥
सुणिऐ अठसठि का इसनानु ॥
सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु ॥
सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥१०॥
Note –
हिंदू धर्म में 68 तीर्थ अत्यंत पवित्र माने जाते हैं। यह तीर्थस्थान नदियों, झीलों, पर्वतों, मंदिरों और नगरों के रूप में होते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन तीर्थों की यात्रा करने से पापों का नाश होता है, पुण्य की प्राप्ति होती है, और अंततः मोक्ष (मुक्ति) का मार्ग खुलता है।
पुराणों (विशेष रूप से स्कंद पुराण, पद्म पुराण, महाभारत और विष्णु पुराण) में इन तीर्थों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
68 तीर्थों के वर्गीकरण (classification) – यह तीर्थस्थान विभिन्न प्रकार के होते हैं:
- सात पवित्र नगर
- चार धाम
- 12 ज्योतिर्लिंग
- सात पवित्र नदियाँ
- पांच सरोवर
- पांच भूतलिंग
१. सप्त मोक्ष पुरी – सात पवित्र नगर – ये सात नगर मोक्ष (मुक्ति) प्रदान करने वाले माने जाते हैं:
- काशी (वाराणसी) – भगवान शिव की नगरी
- अयोध्या – भगवान राम की जन्मभूमि
- मथुरा – भगवान कृष्ण की जन्मभूमि
- हरिद्वार – गंगा का पवित्र स्थल
- द्वारका – भगवान कृष्ण की नगरी
- उज्जैन – महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का स्थान
- कांचीपुरम – देवी पार्वती की पवित्र नगरी
२. चार धाम (Char Dham) – विष्णु के चार धाम – बद्रीनाथ (उत्तराखंड), द्वारका (गुजरात), जगन्नाथ पुरी (ओडिशा), रामेश्वरम (तमिलनाडु)
३. द्वादश (12) ज्योतिर्लिंग – भगवान शिव के पवित्र मंदिर –
- सोमनाथ (गुजरात)
- मल्लिकार्जुन (आंध्र प्रदेश)
- महाकालेश्वर (मध्य प्रदेश)
- ओंकारेश्वर (मध्य प्रदेश)
- केदारनाथ (उत्तराखंड)
- भीमाशंकर (महाराष्ट्र)
- काशी विश्वनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश)
- त्र्यंबकेश्वर (महाराष्ट्र)
- वैद्यनाथ (झारखंड)
- नागेश्वर (गुजरात)
- रामेश्वरम (तमिलनाडु)
- घृष्णेश्वर (महाराष्ट्र)
४. सप्त नदियाँ (Sapta Nadi) – सात पवित्र नदियाँ – गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी
५. पंच सरोवर (Panch Sarovar) – पांच पवित्र झीलें – यह झीलें धार्मिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।
- मानसरोवर (तिब्बत, कैलाश पर्वत के पास)
- बिंदु सरोवर (गुजरात)
- नारायण सरोवर (गुजरात)
- पंपा सरोवर (कर्नाटक)
- पुष्कर सरोवर (राजस्थान)
६. पंच भूतलिंग – पाँच तत्वों से जुड़े शिव मंदिर – यह मंदिर पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) का प्रतीक हैं और शिव भक्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
- एकाम्बरेश्वरर (पृथ्वी – कांचीपुरम, तमिलनाडु)
- जंबुकेश्वरर (जल – तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु)
- अरुणाचलेश्वरर (अग्नि – तिरुवन्नामलाई, तमिलनाडु)
- कालहस्तीश्वरर (वायु – श्रीकालहस्ती, आंध्र प्रदेश)
- चिदंबरम (आकाश – चिदंबरम, तमिलनाडु)
सुणिऐ सरा गुणा के गाह ॥
सुणिऐ सेख पीर पातिसाह ॥
सुणिऐ अंधे पावहि राहु ॥
सुणिऐ हाथ होवै असगाहु ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥११॥
जब हम ध्यानपूर्वक और श्रद्धा से सत्संग, गुरबाणी या ज्ञान की बातें सुनते हैं, तो हमारा जीवन बदल जाता है। हमारी सोच, व्यवहार, और आत्मा पवित्र हो जाती है। इससे हमें ज्ञान, सही दिशा, और मानसिक शांति मिलती है, और हमारे दुख व पाप खत्म हो जाते हैं।
मंने की गति कही न जाइ ॥
जे को कहै पिछै पछुताइ ॥
कागदि कलम न लिखणहारु ॥
मंने का बहि करनि वीचारु ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥
जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१२॥
मन की गहराई को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिक अनुभूति केवल अनुभव करने से आती है, उसे पूरी तरह समझाया नहीं जा सकता। ईश्वर का नाम और सच्चा ज्ञान लिखने या बोलने की चीज़ नहीं है, बल्कि इसे आत्मसात करने की आवश्यकता है। जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वह साधारण इंसान से अलग हो जाता है और उच्च चेतना में पहुँच जाता है।
जिस तरह गहरी शांति, प्रेम, या ध्यान की अनुभूति को शब्दों में बयान करना मुश्किल होता है, उसी तरह मन और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को शब्दों से नहीं समझाया जा सकता। इसे केवल अनुभव किया जा सकता है।आत्मज्ञान और आध्यात्मिकता सिर्फ पढ़ने-लिखने की चीज़ नहीं है, बल्कि इसे मन, ध्यान और अनुभव से समझना पड़ता है।
मंनै सुरति होवै मनि बुधि ॥
मंनै सगल भवण की सुधि ॥
मंनै मुहि चोटा ना खाइ ॥
मंनै जम कै साथि न जाइ ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥
जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१३॥
जो श्रद्धा और ध्यान में लीन होता है, वह अपमान या मानसिक दुखों से प्रभावित नहीं होता। सच्चा भक्त किसी भी परिस्थिति में अपने आत्म-सम्मान को बनाए रखता है और दूसरों के कहे शब्दों से आहत नहीं होता। जो मनन करता है, उसे मृत्यु का भय नहीं सताता। ऐसा व्यक्ति पुण्य कर्म करता है और मृत्यु के बाद उसे यमराज (नरक) के पास नहीं जाना पड़ता।
यह परमात्मा का दिव्य नाम है, जो पवित्र (निरंजन) और शुद्ध है। यह ज्ञान और भक्ति का मार्ग ऐसा है जो व्यक्ति को पवित्र और मोक्ष की ओर ले जाता है। सिर्फ वही इसे समझ सकता है जो सच्चे मन से इसे अपनाए। यह गहरा आध्यात्मिक सत्य है, जिसे केवल वही समझ सकता है जो सच्चे हृदय से गुरबाणी का अभ्यास करता है।
जो व्यक्ति श्रद्धा और ध्यान से जीवन व्यतीत करता है, वह ज्ञानी, आत्मनिर्भर, अपमान से अछूता, मृत्यु के भय से मुक्त और मोक्ष के पथ पर अग्रसर होता है। गुरु की शिक्षा को सच्चे मन से समझने वाला व्यक्ति ही आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त करता है। सच्चे मन से ध्यान और भक्ति करने से व्यक्ति संसार के दुखों और भय से मुक्त हो सकता है।
मंनै मारगि ठाक न पाइ ॥
मंनै पति सिउ परगटु जाइ ॥
मंनै मगु न चलै पंथु ॥
मंनै धरम सेती सनबंधु ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥
जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१४॥
“मंनै” यानी पूर्ण विश्वास और श्रद्धा हमें सही मार्ग दिखाता है, हमें प्रभु से जोड़ता है, और हमें सच्चाई व धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। अगर व्यक्ति का विश्वास अडिग है, तो वह सभी बाधाओं को पार कर सकता है, सही मार्ग पर चलता है और परमात्मा के दर्शन करता है। यदि हमारे मन में पूर्ण श्रद्धा, विश्वास और समर्पण है, तो जीवन में कोई कठिनाई हमें नहीं रोक सकती। हमें सत्य, धर्म और ईमानदारी के मार्ग पर चलना चाहिए, क्योंकि यही हमें प्रभु से जोड़ता है।
मंनै पावहि मोखु दुआरु ॥
मंनै परवारै साधारु ॥
मंनै तरै तारे गुरु सिख ॥
मंनै नानक भवहि न भिख ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥
जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१५॥
जो व्यक्ति विश्वास करता है, उसका पूरा परिवार भी संसार सागर से पार होने में समर्थ हो जाता है। एक व्यक्ति का सच्चा विश्वास उसके पूरे परिवार को आध्यात्मिक रूप से प्रेरित कर सकता है।
जो व्यक्ति विश्वास करता है, वह स्वयं भी संसार सागर से पार हो जाता है और दूसरों को भी पार कर सकता है। गुरु का सिख (शिष्य), जो पूरी श्रद्धा से गुरु की बातों को मानता है, न केवल खुद मोक्ष प्राप्त करता है बल्कि दूसरों को भी आध्यात्मिक मार्ग दिखाता है।
जो व्यक्ति सच्चे मन से विश्वास करता है, वह भटकता नहीं है और मांगने की स्थिति में नहीं आता। जिसके अंदर पूर्ण श्रद्धा होती है, वह कभी भी आध्यात्मिक रूप से खोया हुआ महसूस नहीं करता और संतोष और आत्मनिर्भरता से भर जाता है।
यह सतगुरु का नाम (परमात्मा का नाम) इतना पवित्र और शुद्ध है कि यह व्यक्ति को निर्मल और पवित्र बना देता है। भगवान का नाम (सतनाम) एक अनमोल खजाना है जो आत्मा को शुद्ध करता है।
यदि कोई व्यक्ति इसे सच्चे मन से समझता और अपनाता है, तो वह इसका सच्चा अनुभव कर सकता है। बहुत कम लोग इस सत्य को समझ पाते हैं और उसे अपने जीवन में अपनाते हैं।
श्रद्धा और विश्वास जीवन में बहुत जरूरी हैं। गुरु की वाणी को मानने से आत्मा को शांति और मोक्ष प्राप्त होता है। गुरु का सिख (शिष्य) न केवल खुद को सुधार सकता है, बल्कि दूसरों को भी राह दिखा सकता है। जिसके अंदर सच्चा विश्वास होता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता और आत्मनिर्भर बन जाता है। परमात्मा का नाम (सतनाम) इंसान को पवित्र बनाता है और उसे सच्ची शांति देता है।
यदि हम पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ गुरु की सिख को अपनाएं, तो हम आध्यात्मिक रूप से उन्नति कर सकते हैं और अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
पंच परवाण पंच परधानु ॥
पंचे पावहि दरगहि मानु ॥
पंचे सोहहि दरि राजानु ॥
पंचा का गुरु एकु धिआनु ॥
जे को कहै करै वीचारु ॥
करते कै करणै नाही सुमारु ॥
धौलु धरमु दइआ का पूतु ॥
संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति ॥
जे को बुझै होवै सचिआरु ॥
धवलै उपरि केता भारु ॥
धरती होरु परै होरु होरु ॥
तिस ते भारु तलै कवणु जोरु ॥
जीअ जाति रंगा के नाव ॥
सभना लिखिआ वुड़ी कलाम ॥
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ ॥
लेखा लिखिआ केता होइ ॥
केता ताणु सुआलिहु रूपु ॥
केती दाति जाणै कौणु कूतु ॥
कीता पसाउ एको कवाउ ॥
तिस ते होए लख दरीआउ ॥
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१६॥
ईश्वर की सृष्टि असीम और अनंत है। सच्चे संत, भक्त, और ज्ञानी ही प्रभु के दरबार में स्वीकार किए जाते हैं। संसार धर्म, दया, और संतोष पर टिका हुआ है। जो ईश्वर को पहचान लेता है, वही सच्चा ज्ञानी होता है। संसार का सारा हिसाब केवल ईश्वर ही जानता है। ईश्वर की महिमा का वर्णन करना असंभव है। हमें सच्चाई, दया, धर्म, और ईश्वर के प्रति समर्पण की राह पर चलना चाहिए।
असंख जप असंख भाउ ॥
असंख पूजा असंख तप ताउ ॥
असंख गरंथ मुखि वेद पाठ ॥
असंख जोग मनि रहहि उदास ॥
असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥
असंख सती असंख दातार ॥
असंख सूर मुह भख सार ॥
असंख मोनि लिव लाइ तार ॥
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥
ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को पूरी तरह से समझना और उसका पूरा वर्णन करना संभव नहीं है। मैं (गुरु नानक देव जी) उसकी महिमा के बदले में खुद को भी कुर्बान नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी महानता अनंत है। जो कुछ भी ईश्वर को अच्छा लगता है, वही वास्तव में अच्छा है। (अर्थात सब कुछ उसी की इच्छा से होता है और वह सर्वोत्तम है।) हे निरंकार (रूपहीन परमात्मा)! तू हमेशा स्थिर, अविनाशी और अटल है।
इस संसार में असंख्य भक्त, योगी, दानी, तपस्वी और ज्ञानी लोग हैं, जो अलग-अलग तरीके से ईश्वर की पूजा और भक्ति में लगे हुए हैं। लेकिन फिर भी, ईश्वर की महानता का पूरी तरह से वर्णन करना असंभव है। ईश्वर की महिमा अनंत है, और जो कुछ भी उसकी इच्छा के अनुसार होता है, वही अच्छा होता है। अंत में, गुरु जी परमात्मा (निरंकार) की अपार शक्ति, स्थिरता और अविनाशी स्वरूप की महिमा गाते हैं।
हमें हमेशा भक्ति, सेवा, प्रेम और समर्पण के मार्ग पर चलना चाहिए और अपने अहंकार को त्यागकर उसकी इच्छा को स्वीकार करना चाहिए।
असंख मूरख अंध घोर ॥
असंख चोर हरामखोर ॥
असंख अमर करि जाहि जोर ॥
असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥
असंख पापी पापु करि जाहि ॥
असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥
असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥
असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥
नानकु नीचु कहै वीचारु ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥
गुरु जी कहते हैं कि मैं उस ईश्वर पर न्योछावर होने के लिए तैयार हूँ, लेकिन फिर भी उसका गुणगान करने में असमर्थ हूँ। जो कुछ भी ईश्वर को अच्छा लगे, वही सबसे अच्छा कार्य है। हे निरंकार (निर्गुण और निराकार परमात्मा), तू सदा अटल और स्थिर है।
असंख नाव असंख थाव ॥
अगम अगम असंख लोअ ॥
असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥
अखरी नामु अखरी सालाह ॥
अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥
अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥
अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥
जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥
जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥
जेता कीता तेता नाउ ॥
विणु नावै नाही को थाउ ॥
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥
वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥
तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥
उसका स्वरूप इतना विशाल और रहस्यमय है कि कोई भी उसे पूरी तरह से समझ नहीं सकता। अनगिनत लोग उसे बयान करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे थककर चूर हो जाते हैं। उसकी महिमा का वर्णन करने की कोई सीमा नहीं, कोई उसे पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकता। शब्दों (अक्षरों) से ही परमात्मा का नाम लिया जाता है और उसकी स्तुति (प्रशंसा) की जाती है। परमात्मा को जानने और उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए हमें शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है।
शब्दों से ही ज्ञान प्राप्त होता है, और इन्हीं शब्दों से भगवान की स्तुति में गीत गाए जाते हैं। ज्ञान और भक्ति दोनों ही शब्दों के माध्यम से संभव हैं। शब्दों से ही लिखना, बोलना और संवाद करना संभव होता है। पूरा संसार भाषा और अक्षरों के माध्यम से ही जुड़ा हुआ है। शब्दों से ही भाग्य का निर्माण और उसके रहस्य बताए जाते हैं। हमारी तकदीर (भाग्य) भी शब्दों के माध्यम से ही प्रकट होती है। जिसने यह सृष्टि रची है, उसके सिर पर कोई सीमा नहीं है। अर्थात् परमात्मा अनंत और निराकार है, उसकी कोई सीमा नहीं। जो भी वह आदेश देता है, उसी के अनुसार सब कुछ घटित होता है। पूरी सृष्टि परमात्मा की इच्छा से ही चलती है। जितनी भी सृष्टि बनी है, वह सब परमात्मा के नाम से बनी है। हर वस्तु, हर जीव उसके द्वारा निर्मित है और उसका नाम हर जगह व्याप्त है। उसके नाम के बिना कोई स्थान (अस्तित्व) नहीं है। हर चीज़ उसी के नाम पर आधारित है, उसके बिना कुछ भी संभव नहीं। उसकी बनाई हुई इस सृष्टि के बारे में मैं क्या विचार कर सकता हूँ?
उसकी रचना इतनी अद्भुत और विशाल है कि उसे पूरी तरह समझना नामुमकिन है। मैं उस परमात्मा पर अपनी हर चीज़ कुर्बान कर दूँ, फिर भी यह कम होगा। उसका एहसान इतना बड़ा है कि हम उसका बदला कभी नहीं चुका सकते। जो कुछ तुझे अच्छा लगे, वही सबसे उत्तम कार्य है। परमात्मा जो भी करता है, वही सर्वोत्तम होता है। तू सदा सुरक्षित (अविनाशी) और निरंकार (रूप-रहित) है। परमात्मा न कभी जन्म लेता है, न मरता है, वह सदा के लिए एक समान रहता है।
परमात्मा की महिमा अपरंपार है। वह अनगिनत रूपों में प्रकट होता है, अनगिनत लोकों में विद्यमान है, और उसकी स्तुति करने वाले भी असंख्य हैं। शब्दों (अक्षरों) के माध्यम से हम उसे जानने, उसकी स्तुति करने, और अपने विचार प्रकट करने में सक्षम होते हैं। परमात्मा ही इस पूरी सृष्टि के रचयिता हैं, और उनका कोई अंत नहीं। उनका नाम ही इस सृष्टि का आधार है। उनकी बनाई हुई सृष्टि इतनी अद्भुत है कि हम उसकी पूरी तरह व्याख्या नहीं कर सकते। हम उनके दिए हुए आशीर्वाद के लिए हमेशा कृतज्ञ रह सकते हैं, लेकिन उनका कर्ज़ कभी नहीं चुका सकते। जो कुछ भी होता है, वह उनकी इच्छा से ही होता है, और वही सर्वोत्तम होता है।
परमात्मा निरंकार (रूप-रहित) और अविनाशी हैं, और सदा के लिए सलामत रहते हैं।
भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥
पाणी धोतै उतरसु खेह ॥
मूत पलीती कपड़ु होइ ॥
दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥
भरीऐ मति पापा कै संगि ॥
ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥
पुंनी पापी आखणु नाहि ॥
करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥
आपे बीजि आपे ही खाहु ॥
नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥
कोई भी जन्म से न पापी होता है, न ही पुण्यात्मा। बल्कि, जो जैसा कर्म करता है, उसका हिसाब उसी के अनुसार लिखा जाता है। इंसान अपने कर्मों से ही पुण्यवान (अच्छा) या पापी (बुरा) बनता है। जो भी तुम अपने जीवन में बोओगे, वही तुम्हें भविष्य में भोगना पड़ेगा। यह सिद्धांत “कर्म का सिद्धांत” कहलाता है – अच्छे कर्म करोगे तो अच्छे फल मिलेंगे, बुरे कर्म करोगे तो बुरे परिणाम झेलने होंगे।
सब कुछ परमात्मा के हुक्म (आदेश) से होता है – जन्म और मृत्यु भी उसी के अनुसार होती है। इंसान को अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर के आदेश को समझना और उसके अनुसार अपने जीवन में अच्छे कर्म करने चाहिए।
तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥
जे को पावै तिल का मानु ॥
सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥
अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥
सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥
विणु गुण कीते भगति न होइ ॥
सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥
सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥
कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥
कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥
वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥
वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥
किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥
नानक आखणि सभु को आखै इक दू इकु सिआणा ॥
वडा साहिबु वडी नाई कीता जा का होवै ॥
नानक जे को आपौ जाणै अगै गइआ न सोहै ॥२१॥
हे प्रभु! सभी गुण आपके हैं, मेरे अंदर कोई गुण नहीं है। बिना अच्छे कर्मों के (अच्छे गुणों को अपनाए बिना) सच्ची भक्ति नहीं हो सकती। भगवान की भक्ति के लिए इंसान को पहले अपने भीतर अच्छे गुण लाने चाहिए।
आपकी बाणी (शब्द) सत्य है, और यह सभी भ्रमों को दूर करती है। सत्य बहुत सुंदर है, और इसे अपनाने वाला व्यक्ति हमेशा आनंद में रहता है। जो व्यक्ति सच्चाई के मार्ग पर चलता है, वह हमेशा शांति और आनंद का अनुभव करता है।
अब, आगे गुरु नानक जी सृष्टि के निर्माण से जुड़े सवाल पूछते हैं: वह कौन सा समय, कौन सा क्षण, कौन सी तिथि और कौन सा दिन था जब सृष्टि का निर्माण हुआ? कौन सा मौसम और कौन सा महीना था जब इस सृष्टि की रचना हुई?पंडितों को भी यह समय ज्ञात नहीं, चाहे वे वेद-पुराण पढ़ें। मुल्ला और काज़ी भी यह नहीं जानते, चाहे वे कुरान में खोजें। सृष्टि के निर्माण का समय न तो हिंदू ग्रंथों में बताया गया है, न इस्लामी ग्रंथों में। इसका ज्ञान केवल ईश्वर को ही है।
योगी भी नहीं जानते कि कौन सी तिथि, वार, ऋतु या महीना था। जिस ईश्वर ने सृष्टि बनाई, केवल वही इसका रहस्य जानता है। मानव अपने ज्ञान पर घमंड न करे, क्योंकि वास्तविक ज्ञान केवल ईश्वर के पास है।
मैं ईश्वर की महिमा को कैसे बयान करूं? कैसे उसकी प्रशंसा करूं? उसे कैसे समझूं? हर कोई कुछ न कुछ कहने की कोशिश करता है, लेकिन कोई भी पूर्ण सत्य नहीं जानता। हर इंसान अपनी बुद्धि के अनुसार ईश्वर को समझने की कोशिश करता है, लेकिन उसका वास्तविक स्वरूप असीम और अनंत है।
ईश्वर महान है, और उसकी महिमा भी महान है। अगर कोई खुद को बहुत ज्ञानी समझे और घमंड करे, तो वह ईश्वर के दरबार में स्वीकार नहीं किया जाएगा। अहंकार ज्ञान का सबसे बड़ा दुश्मन है। ईश्वर के सच्चे भक्त विनम्र होते हैं और अहंकार से दूर रहते हैं।
पाताला पाताल लख आगासा आगास ॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात ॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु ॥
लेखा होइ त लिखीऐ लेखै होइ विणासु ॥
नानक वडा आखीऐ आपे जाणै आपु ॥२२॥
अगर ईश्वर की महानता को गिनकर लिखा जा सकता, तो लेखन समाप्त भी हो जाता। ईश्वर की महिमा असीमित है, जिसे पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता। ईश्वर को वास्तव में “महान” ही कहा जा सकता है, लेकिन उसकी वास्तविकता को केवल वही जानता है। यानी, ईश्वर की वास्तविकता को पूरी तरह से समझना या वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
ऋषि-मुनि और वेदों ने बहुत खोज की, लेकिन अंत में वे केवल यही कह पाए कि ईश्वर की महिमा को पूरी तरह समझना असंभव है। हजारों धार्मिक ग्रंथों का सार यही है कि ईश्वर एक ही है। ईश्वर की महिमा को शब्दों में बांधना संभव नहीं है। केवल वही (ईश्वर) अपनी वास्तविकता को जानता है। हमें विनम्र रहकर ईश्वर के ज्ञान की खोज करनी चाहिए, लेकिन यह समझना चाहिए कि पूर्ण सत्य केवल ईश्वर ही जानता है।
सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ ॥
नदीआ अतै वाह पवहि समुंदि न जाणीअहि ॥
समुंद साह सुलतान गिरहा सेती मालु धनु ॥
कीड़ी तुलि न होवनी जे तिसु मनहु न वीसरहि ॥२३॥
यदि कोई राजा या सुल्तान भी हो और उसके पास ढेर सारा धन-संपत्ति हो, तब भी वह ईश्वर के सामने कुछ भी नहीं है। संसारिक धन, पद, प्रतिष्ठा और शक्ति का कोई वास्तविक मूल्य नहीं है यदि इंसान के मन में ईश्वर का सुमिरन (स्मरण) नहीं है। यहाँ “समुंद साह” का अर्थ बहुत बड़े और धनी राजा से है, लेकिन उसकी सारी संपत्ति भी ईश्वर की तुलना में नगण्य है। अगर कोई ईश्वर को भूल जाता है, तो वह करोड़पति या राजा होने के बावजूद एक कीड़े के बराबर भी नहीं होता।
यदि कोई व्यक्ति कितना भी अमीर, शक्तिशाली, बुद्धिमान या प्रतिष्ठित हो, लेकिन उसके मन में ईश्वर का स्मरण नहीं है, तो उसकी स्थिति एक छोटे कीड़े के समान होती है। दूसरे शब्दों में, सच्ची महानता सांसारिक संपत्ति से नहीं, बल्कि ईश्वर की भक्ति से मिलती है।
अंतु न सिफती कहणि न अंतु ॥
अंतु न करणै देणि न अंतु ॥
अंतु न वेखणि सुणणि न अंतु ॥
अंतु न जापै किआ मनि मंतु ॥
अंतु न जापै कीता आकारु ॥
अंतु न जापै पारावारु ॥
अंत कारणि केते बिललाहि ॥
ता के अंत न पाए जाहि ॥
एहु अंतु न जाणै कोइ ॥
बहुता कहीऐ बहुता होइ ॥
वडा साहिबु ऊचा थाउ ॥
ऊचे उपरि ऊचा नाउ ॥
एवडु ऊचा होवै कोइ ॥
तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ ॥
जेवडु आपि जाणै आपि आपि ॥
नानक नदरी करमी दाति ॥२४॥
ईश्वर ने जो यह सृष्टि बनाई है, उसका भी कोई अंत नहीं है। उसकी रचना अपार और अनगिनत है। हम ईश्वर की सत्ता की सीमा नहीं जान सकते, न ही उसके विस्तार का कोई छोर पा सकते हैं। बहुत से ज्ञानी और महापुरुष ईश्वर के अंत को खोजने का प्रयास करते रहे हैं, लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो सके। फिर भी, कोई भी उसके अंत को नहीं जान सका। सच तो यह है कि उसके अंत को कोई भी नहीं जान सकता। जितना अधिक उसकी महिमा का वर्णन किया जाए, उतना ही अधिक उसका प्रभाव और महानता महसूस होती है। वह ईश्वर महान स्वामी है, और उसका स्थान सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ है। उसके नाम से ऊँचा और कुछ भी नहीं है। वह सबसे ऊँचा और महानतम है। यदि कोई उसकी महानता की बराबरी करना चाहे, तो वह नहीं कर सकता। केवल वही व्यक्ति ईश्वर को जान सकता है, जिसे ईश्वर स्वयं अपनी कृपा से यह ज्ञान प्रदान करे। ईश्वर स्वयं ही अपनी महिमा को पूरी तरह से जानता है, क्योंकि वह स्वयं ही अनंत और अपार है। गुरु नानक देव जी कहते हैं कि उसकी कृपा और दान केवल उसकी कृपा-दृष्टि (नज़र) से ही प्राप्त होती है। मनुष्य को उसे अपनी बुद्धि से समझने की बजाय उसकी कृपा का पात्र बनने की कोशिश करनी चाहिए।
बहुता करमु लिखिआ ना जाइ ॥
वडा दाता तिलु न तमाइ ॥
केते मंगहि जोध अपार ॥
केतिआ गणत नही वीचारु ॥
केते खपि तुटहि वेकार ॥
केते लै लै मुकरु पाहि ॥
केते मूरख खाही खाहि ॥
केतिआ दूख भूख सद मार ॥
एहि भि दाति तेरी दातार ॥
बंदि खलासी भाणै होइ ॥
होरु आखि न सकै कोइ ॥
जे को खाइकु आखणि पाइ ॥
ओहु जाणै जेतीआ मुहि खाइ ॥
आपे जाणै आपे देइ ॥
आखहि सि भि केई केइ ॥
जिस नो बखसे सिफति सालाह ॥
नानक पातिसाही पातिसाहु ॥२५॥
बंदी (कष्ट में पड़े लोग) तभी मुक्त होते हैं जब ईश्वर की इच्छा होती है। और कोई भी इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता। अगर कोई कहे कि वह परमात्मा की कृपा को जान सकता है, तो वह केवल उतना ही जानता है जितना उसने (ईश्वर की कृपा से) अनुभव किया है।
ईश्वर स्वयं ही जानता है और स्वयं ही सबको देता है। बहुत से लोग ईश्वर की महिमा का बखान करते हैं। लेकिन केवल वही लोग उसकी वास्तविक महिमा को समझ सकते हैं जिन्हें वह अपनी कृपा से यह अवसर देता है। गुरु नानक देव जी कहते हैं: वह परमात्मा सभी राजाओं का राजा है।
ईश्वर की दया और कृपा अनंत है। दुनिया में बहुत से लोग उससे कुछ न कुछ माँगते रहते हैं, लेकिन उसकी कृपा को पूरी तरह से समझ पाना असंभव है। कुछ लोग लालच में रहते हैं, कुछ ईश्वर के दिए हुए आशीर्वाद को ठुकरा देते हैं, और कुछ लोग हमेशा दुख और भूख से पीड़ित रहते हैं। सच्चा संतोष और मुक्ति केवल ईश्वर की इच्छा से ही संभव है। जो भी व्यक्ति सच में उसकी महिमा को समझता है, वह वही है जिसे ईश्वर स्वयं यह ज्ञान प्रदान करता है।
अमुल गुण अमुल वापार ॥
अमुल वापारीए अमुल भंडार ॥
अमुल आवहि अमुल लै जाहि ॥
अमुल भाइ अमुला समाहि ॥
अमुलु धरमु अमुलु दीबाणु ॥
अमुलु तुलु अमुलु परवाणु ॥
अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु ॥
अमुलु करमु अमुलु फुरमाणु ॥
अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥
आखि आखि रहे लिव लाइ ॥
आखहि वेद पाठ पुराण ॥
आखहि पड़े करहि वखिआण ॥
आखहि बरमे आखहि इंद ॥
आखहि गोपी तै गोविंद ॥
आखहि ईसर आखहि सिध ॥
आखहि केते कीते बुध ॥
आखहि दानव आखहि देव ॥
आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥
केते आखहि आखणि पाहि ॥
केते कहि कहि उठि उठि जाहि ॥
एते कीते होरि करेहि ॥
ता आखि न सकहि केई केइ ॥
जेवडु भावै तेवडु होइ ॥
नानक जाणै साचा सोइ ॥
जे को आखै बोलुविगाड़ु ॥
ता लिखीऐ सिरि गावारा गावारु ॥२६॥
कई लोग उसे कहने की कोशिश करते हैं, लेकिन अंततः वे उसकी भक्ति में लीन हो जाते हैं। वेद और पुराण भी उसे बयान करने की कोशिश करते हैं। पढ़े-लिखे लोग भी उसके बारे में चर्चा करते हैं। ब्रह्मा और इंद्र भी उसकी महिमा का बखान करते हैं। गोपियाँ और भगवान कृष्ण भी उसकी चर्चा करते हैं। शिवजी और सिद्ध महात्मा भी उसकी महिमा का वर्णन करते हैं। कई ज्ञानी और बुद्धिमान भी उसके बारे में बोलते हैं। राक्षस और देवता भी उसका वर्णन करते हैं देवता, मनुष्य, ऋषि और सेवक भी उसकी महिमा गाते हैं। बहुत लोग उसे कहने का प्रयास करते हैं। बहुतों ने उसे समझने की कोशिश की, लेकिन वे असफल होकर चले गए। अगर उससे भी अधिक लोग उसे जानने की कोशिश करें, तब भी… कोई भी उसे पूरी तरह से नहीं समझ सकता। वह जितना चाहता है, उतना ही होता है। गुरु नानक कहते हैं, केवल वही सच्चा है जो उसे जानता है। अगर कोई उसकी महिमा को गलत तरीके से कहता है… तो उसे मूर्ख कहा जाता है।
सो दरु केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥
वाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे ॥
केते राग परी सिउ कहीअनि केते गावणहारे ॥
गावहि तुहनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥
गावहि चितु गुपतु लिखि जाणहि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥
गावहि ईसरु बरमा देवी सोहनि सदा सवारे ॥
गावहि इंद इदासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥
गावहि सिध समाधी अंदरि गावनि साध विचारे ॥
गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे ॥
गावनि पंडित पड़नि रखीसर जुगु जुगु वेदा नाले ॥
गावहि मोहणीआ मनु मोहनि सुरगा मछ पइआले ॥
गावनि रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥
गावहि जोध महाबल सूरा गावहि खाणी चारे ॥
गावहि खंड मंडल वरभंडा करि करि रखे धारे ॥
सेई तुधुनो गावहि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥
होरि केते गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ वीचारे ॥
सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥
है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥
रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥
करि करि वेखै कीता आपणा जिव तिस दी वडिआई ॥
जो तिसु भावै सोई करसी हुकमु न करणा जाई ॥
सो पातिसाहु साहा पातिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥२७॥
वह (ईश्वर) कहाँ रहता है? उसका दरबार (घर) कहाँ है? वह हर जगह उपस्थित है और पूरे संसार का ध्यान रखता है। ईश्वर के दरबार में अनगिनत नाद (संगीत) बजते हैं, और अनगिनत लोग उसकी महिमा गाते हैं।
बहुत से राग और संगीतकार ईश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं। कुदरत भी भगवान की स्तुति करती है। हवा, पानी, और अग्नि भगवान की महिमा गाते हैं। राजा धर्मराज (यमराज) भी उसके आदेशों का पालन करता है।
चिंतन करने वाले, साधु, संत, योगी भी उसकी स्तुति करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, और सभी देवता भी उसकी महिमा गाते हैं। स्वर्ग की अप्सराएँ भी उसकी सुंदरता का वर्णन करती हैं। असंख्य ऋषि-मुनि वेदों के माध्यम से ईश्वर की स्तुति करते हैं। चारों युगों में उसकी महिमा गाई जाती है। सभी संत, तपस्वी, ज्ञानी, और वीर योद्धा भी उसकी प्रशंसा करते हैं। अष्टसठि तीर्थ (68 तीर्थ स्थान) भी उसकी महिमा गाते हैं। चारों लोकों और सृष्टि में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी उसकी कृपा से बने हैं और उसी की स्तुति करते हैं। परम सत्य और शाश्वत ईश्वर ही हमेशा सच्चा है। वह पहले भी था, अब भी है, और हमेशा रहेगा। पूरी सृष्टि उसी ने बनाई है।
ईश्वर की लीला अपरंपार है। ईश्वर ने अपनी माया से भिन्न-भिन्न रूपों और रंगों में यह सृष्टि बनाई है। वह अपनी बनाई हुई रचना को खुद ही देखता है और उसकी महिमा करता है। ईश्वर की मर्ज़ी ही सर्वोपरि है।
जो कुछ भी ईश्वर चाहता है, वही होता है। उसके आदेश को बदला नहीं जा सकता। गुरु नानक जी कहते हैं कि वही सच्चा राजा है और उसकी इच्छा ही सर्वोपरि है।
मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूति ॥
खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति ॥
आई पंथी सगल जमाती मनि जीतै जगु जीतु ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२८॥
एक सच्चा योगी या संत वह नहीं जो बाहरी रूप से साधु दिखे, बल्कि वह है जो संतोष, मेहनत, और ध्यान को अपनाए।
साधु अपने शरीर पर फटी-पुरानी पोशाक पहनते हैं, लेकिन असली पोशाक समय (काल) को मानना चाहिए – यानी जीवन नश्वर है, इसे समझो। शरीर को पवित्र रखना और बुरी सोच से बचना चाहिए। साधु डंडा लेकर चलते हैं, लेकिन असली सहारा सद्गुण और नैतिकता है। मनुष्य को ईश्वर में भरोसा – परतीति (आत्म-विश्वास और श्रद्धा) – रखना चाहिए।
बाहरी वस्त्रों या साधनों से कोई संत नहीं बनता। असली संन्यास वह है जिसमें व्यक्ति अपने मन और शरीर को पवित्र रखे, समय को पहचाने और श्रद्धा रखे।
सभी इंसान समान हैं और सबका मार्ग एक ही है – सतमार्ग (सच्चाई का रास्ता)। सगल जमाती (समाज के सभी लोग) – सभी इंसान एक समान हैं, जाति-पाति का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
जो अपने मन पर जीत हासिल कर लेता है, वही असली दुनिया को जीत सकता है।
जाति, धर्म, ऊँच-नीच से ऊपर उठकर सभी को समान मानना चाहिए। अगर कोई अपने मन को जीत ले, तो वह पूरी दुनिया को जीत सकता है।
उस परमात्मा को बार-बार प्रणाम हो, उस ईश्वर को नमन हो। हमेशा ईश्वर को नमन करना चाहिए, क्योंकि वही सबसे महान और सर्वोच्च शक्ति है।
ईश्वर अनादि (जिसकी कोई शुरुआत नहीं) है। वह हमेशा पवित्र और निष्कलंक है। अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं) – भगवान का कोई जन्म या अंत नहीं है। अनाहति (जिस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता) – ईश्वर किसी से भी प्रभावित नहीं होता। हर युग में ईश्वर एक ही रूप में रहता है, उसका स्वरूप कभी नहीं बदलता।
भुगति गिआनु दइआ भंडारणि घटि घटि वाजहि नाद ॥
आपि नाथु नाथी सभ जा की रिधि सिधि अवरा साद ॥
संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२९॥
वह स्वयं ही सबका स्वामी है और सबका मालिक है। सारी रिद्धियाँ और सिद्धियाँ (चमत्कारी शक्तियाँ) केवल क्षणिक सुख हैं। ईश्वर ही सबका स्वामी है। कुछ लोग सांसारिक शक्तियों, सिद्धियों और चमत्कारों को महत्व देते हैं, लेकिन यह सभी ईश्वर के वास्तविक आनंद से बहुत छोटे हैं। सच्ची रिद्धि-सिद्धि ईश्वर की भक्ति और ज्ञान से प्राप्त होती है, न कि बाहरी चमत्कारों से।
संसार में मिलना (संयोग) और बिछड़ना (वियोग) – ये दोनों कर्मों के कारण होते हैं। भाग्य भी उन्हीं के अनुसार मिलता है। हमारे जीवन में मिलन (खुशियाँ) और बिछड़ना (दुख) कर्मों के अनुसार चलते हैं। जो कुछ भी हमें जीवन में प्राप्त होता है, वह हमारे पिछले कर्मों (भाग्य) के आधार पर होता है। यह संसार ईश्वर के नियमों से चलता है, और हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ता है।
मैं उस परमात्मा को बार-बार प्रणाम करता हूँ, क्योंकि वही सृष्टि का वास्तविक स्वामी है। वह आदि (प्रारंभ से पहले का), अनील (निर्मल), अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं), अनाहत (जिसे कोई आघात नहीं पहुँचा सकता) है। वह हर युग में एक समान रहता है। ईश्वर को कोई बांध नहीं सकता। वह शुद्ध, सदा रहने वाला, जन्म-मरण से परे, अजर-अमर और युगों-युगों तक एक समान रहने वाला है। वह कभी बदलता नहीं, जबकि संसार परिवर्तनशील है।
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥
जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥
ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३०॥
“तीन चेले” से तात्पर्य तीन गुणों से है—
- सतोगुण (पवित्रता, ज्ञान, सच्चाई)
- रजोगुण (इच्छाएं, कर्म, गतिविधियाँ)
- तमोगुण (अज्ञान, आलस्य, अंधकार)
इन तीनों गुणों के अनुसार, तीन मुख्य कार्यकर्ता बने:
- संसारी (ब्रह्मा) – जो सृष्टि की रचना करता है।
- भंडारी (विष्णु) – जो पालन करता है।
- दीबाणु (शिव) – जो संहार करता है।
यह त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का वर्णन है, जिन्हें संसार को चलाने के लिए नियुक्त किया गया।
जिस प्रकार ईश्वर को अच्छा लगता है, वैसे ही वह इस संसार को चलाता है और जैसा उसका हुक्म (आदेश) होता है, वैसे ही सबकुछ घटित होता है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी परमात्मा की ही इच्छा से कार्य करते हैं, वे अपने आप कुछ नहीं कर सकते।
वह (ईश्वर) सबको देखता है, लेकिन उसे कोई देख नहीं सकता। यह बहुत ही अद्भुत बात है। ईश्वर सर्वव्यापी है, वह हमें हर समय देखता है, लेकिन हमारी आँखें उसे देख नहीं सकतीं। यह उसका अलौकिक गुण है। वह परमात्मा आदि (सर्वप्रथम) है, अनील (निर्मल) है, अनादि (जिसका कोई आदि या आरंभ नहीं) है, अनाहत (जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता) है, जुग-जुग एको वेसु (जो सदा एक समान है, कभी बदलता नहीं)।
आसणु लोइ लोइ भंडार ॥
जो किछु पाइआ सु एका वार ॥
करि करि वेखै सिरजणहारु ॥
नानक सचे की साची कार ॥
आदेसु तिसै आदेसु ॥
आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३१॥
ईश्वर ने सारी सृष्टि को बनाया है और वे स्वयं ही उसे बार-बार देख रहे हैं। ईश्वर सृष्टि का रचयिता है और वह अपने बनाए संसार की देखभाल भी करता है। सच्चे (परमात्मा) का कार्य (कृपा) भी सच्ची और अटल होती है।
ईश्वर का बनाया हुआ संसार और उनकी लीला सत्य है और सदा अडिग रहती है। वह सृष्टि के प्रारंभ से पहले भी मौजूद था। वह पवित्र और निर्लिप्त (दुनिया के मोह-माया से परे) है। उसका कोई आदि (शुरुआत) नहीं है, वह हमेशा से है।
वह अजेय और अविनाशी है। हर युग में वह एक ही रूप में रहता है, वह कभी बदलता नहीं है।
इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख वीस ॥
लखु लखु गेड़ा आखीअहि एकु नामु जगदीस ॥
एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीऐ होइ इकीस ॥
सुणि गला आकास की कीटा आई रीस ॥
नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥
यदि लाखों बार बार-बार भी परमेश्वर का नाम लिया जाए, तो भी वह कम ही लगेगा। ईश्वर के नाम की महिमा इतनी अनंत है कि अगर हम अनगिनत बार भी उसका जाप करें, तब भी उसकी महिमा पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सकते।
इस मार्ग पर चलते हुए कोई उच्च अवस्था प्राप्त कर सकता है। अगर कोई लगातार ईश्वर के नाम का सुमिरन करता रहे और भक्ति में लगा रहे, तो वह आध्यात्मिक रूप से ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकता है।
जब छोटे जीव-कीट (कीड़े) आसमान की ऊँचाइयों की बातें सुनते हैं, तो उन्हें ईर्ष्या होती है। जो लोग अज्ञान में हैं, वे भक्तों की भक्ति और आध्यात्मिक उपलब्धियों को देखकर जलन महसूस कर सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक छोटा कीड़ा आसमान में उड़ते पक्षियों को देखकर जलता है, क्योंकि वह वहाँ नहीं पहुँच सकता।
ईश्वर की कृपा से ही उसका नाम जपा जा सकता है, और झूठा व्यक्ति (अहंकारी) झूठ में ही नष्ट हो जाता है। ईश्वर की भक्ति और उसकी पहचान केवल उसकी कृपा (नजर) से ही संभव है। जो लोग माया (भौतिक सुखों) में फँसे रहते हैं, वे अंततः दुखी ही होते हैं।
आखणि जोरु चुपै नह जोरु ॥
जोरु न मंगणि देणि न जोरु ॥
जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु ॥
जोरु न राजि मालि मनि सोरु ॥
जोरु न सुरती गिआनि वीचारि ॥
जोरु न जुगती छुटै संसारु ॥
जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ ॥
नानक उतमु नीचु न कोइ ॥३३॥
- किसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह जबरदस्ती – (जोर) से बोल सके या जबरदस्ती चुप रह सके। बोलने और चुप रहने का अधिकार ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।
- किसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह जबरदस्ती – कुछ मांग सके या जबरदस्ती किसी को कुछ दे सके। सच्ची दया और कृपा केवल भगवान से ही प्राप्त होती है।
- किसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह जबरदस्ती – जीवन प्राप्त कर सके या मृत्यु को रोक सके। जीवन और मृत्यु केवल परमात्मा की इच्छा से होती है।
- किसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह जबरदस्ती – राज (सत्ता), धन-संपत्ति, मोती (आभूषण) और सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त कर सके। यह सब परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है।
- किसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह जबरदस्ती – बोध (समझदारी), ज्ञान और विचार प्राप्त कर सके। सच्ची बुद्धि और विवेक केवल भगवान की कृपा से मिलता है।
- किसी के पास यह शक्ति नहीं है कि वह अपने बल से – संसार के बंधनों (मोह-माया) से मुक्त हो सके। केवल सच्चे भक्ति और गुरु की कृपा से ही मुक्ति संभव है।
सच्ची शक्ति और अधिकार केवल उसी के हाथ में है, जो सबकुछ देख रहा है यानी ईश्वर। वह जो चाहे, कर सकता है। परमात्मा की दृष्टि में कोई उच्च (महान) या नीच (छोटा) नहीं है। सब समान हैं, क्योंकि सभी उसी की बनाई हुई सृष्टि का हिस्सा हैं।
राती रुती थिती वार ॥
पवण पाणी अगनी पाताल ॥
तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल ॥
तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥
तिन के नाम अनेक अनंत ॥
करमी करमी होइ वीचारु ॥
सचा आपि सचा दरबारु ॥
तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥
नदरी करमि पवै नीसाणु ॥
कच पकाई ओथै पाइ ॥
नानक गइआ जापै जाइ ॥३४॥
हर व्यक्ति अपने कर्मों के आधार पर परखा जाता है। ईश्वर न्याय करते समय इंसान के अच्छे और बुरे कर्मों को देखता है। ईश्वर स्वयं सत्य है और उसका दरबार (न्यायालय) भी सत्य है। वहाँ किसी प्रकार का झूठ या छल नहीं चलता। ईश्वर के दरबार में केवल वे लोग स्वीकार किए जाते हैं जो सच्चे और अच्छे कर्मों वाले होते हैं। उन्हें वहाँ सम्मान मिलता है। ईश्वर की कृपा से ही कोई व्यक्ति सच्चे मार्ग पर चलने का आशीर्वाद प्राप्त करता है। जब ईश्वर कृपा करता है, तभी व्यक्ति धर्म के रास्ते पर चलता है। ईश्वर के दरबार में हर व्यक्ति के कर्मों को जांचा जाता है। कुछ लोग कच्चे (अधूरे, बुरे कर्मों वाले) होते हैं, और कुछ लोग पके (सच्चे, अच्छे कर्मों वाले) होते हैं। उसी आधार पर उनका निर्णय किया जाता है।
जो भी इस सत्य को समझता है, उसे यह महसूस होता है कि इस संसार में सब कुछ कर्म और सत्य के अनुसार चलता है। इसलिए इंसान को अपने कर्मों को अच्छा बनाना चाहिए ताकि वह ईश्वर के दरबार में स्वीकार किया जाए।
धरम खंड का एहो धरमु ॥
गिआन खंड का आखहु करमु ॥
केते पवण पाणी वैसंतर केते कान महेस ॥
केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥
केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥
केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥
केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥
केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥
केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु ॥३५॥
ज्ञान खंड (ज्ञान के क्षेत्र) में कर्म महत्वपूर्ण होता है। ज्ञान की राह पर आगे बढ़ने के लिए केवल सोचने से कुछ नहीं होता, बल्कि कर्म भी करना आवश्यक होता है। सच्चे ज्ञान की पहचान कर्मों से होती है।
असंख्य वायु, जल, अग्नि और अनेक शिव (महेश) हैं। सृष्टि में अनगिनत तत्व मौजूद हैं। यहाँ पर गुरु नानक जी यह बता रहे हैं कि ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि बहुत विशाल और अनगिनत तत्वों से भरी हुई है। इसमें अनेक प्रकार की प्राकृतिक शक्तियाँ और शक्तिशाली देवता मौजूद हैं। अनेक ब्रह्मा, जो सृजन में लगे हैं, विभिन्न रूप, रंग और वेशधारी हैं। ईश्वर की बनाई सृष्टि में अनेकों ब्रह्मा (सृजनकर्ता) हैं, जो अनगिनत रूपों और रंगों में मौजूद हैं। अनेक धर्मभूमियाँ, मेरु पर्वत और अनेकों गुरु और ऋषियों के उपदेश हैं। संसार में अनेक धर्म, तीर्थ स्थान, और आध्यात्मिक उपदेश मौजूद हैं, जो हमें सही रास्ता दिखाते हैं। असंख्य इंद्र, चंद्रमा, सूर्य, ग्रह और देश हैं। यह ईश्वर की महानता का बखान है कि सृष्टि में अनगिनत ग्रह, चंद्रमा, सूर्य और आकाशगंगाएँ हैं।
असंख्य सिद्ध, ज्ञानी, योगी और देवी-देवताओं के रूप हैं। ईश्वर ने अनेकों सिद्ध योगी, बुद्धिमान ज्ञानी और देवी-देवताओं को भी बनाया है। असंख्य देवता, दानव, ऋषि और समुद्रों में बहुमूल्य रत्न हैं। संसार में केवल सकारात्मक (देवता) और नकारात्मक (दानव) शक्तियाँ ही नहीं हैं, बल्कि मूल्यवान खजाने और ज्ञान के भंडार भी मौजूद हैं। असंख्य योनियाँ, भाषाएँ और असंख्य राजा हैं। यहाँ यह बताया गया है कि सृष्टि में अनगिनत प्रजातियाँ, भाषाएँ और राजघराने हैं।
असंख्य भक्त, सेवक और इस सृष्टि का कोई अंत नहीं है, नानक। भगवान की बनाई हुई सृष्टि इतनी विशाल और अपार है कि इसका कोई अंत नहीं है।
गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥
तिथै नाद बिनोद कोड अनंदु ॥
सरम खंड की बाणी रूपु ॥
तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुतु अनूपु ॥
ता कीआ गला कथीआ ना जाहि ॥
जे को कहै पिछै पछुताइ ॥
तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥
तिथै घड़ीऐ सुरा सिधा की सुधि ॥३६॥
ज्ञान के खंड (अर्थात् स्तर) में ज्ञान अत्यंत शक्तिशाली और तेज़ होता है। जब कोई आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ता है, तो पहला चरण “ज्ञान खंड” (ज्ञान का क्षेत्र) होता है। यहाँ पर आत्मा को वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह ज्ञान साधारण नहीं होता बल्कि बहुत तेज और प्रभावशाली होता है, जिससे व्यक्ति सत्य को पहचानता है। वहाँ (ज्ञान खंड में) नाद (आध्यात्मिक ध्वनि), बिनोद (आनंद), और करोड़ों प्रकार के सुख होते हैं। जब व्यक्ति ज्ञान खंड में प्रवेश करता है, तो उसे दिव्य ध्वनियाँ (नाद) सुनाई देती हैं, आनंद की अनुभूति होती है, और उसे अनगिनत आध्यात्मिक सुख प्राप्त होते हैं।
अगला स्तर “सरम खंड” है। सरम खंड (प्रयास का क्षेत्र) की भाषा सुंदरता से भरी होती है, जहाँ आत्मा खुद को परिशुद्ध करने के लिए प्रयासरत रहती है। यहाँ पर आत्मा सुंदरता, गुण, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए कड़ी मेहनत करती है। वहाँ (सरम खंड में) बेहद अनूठे रूप और आकार तैयार किए जाते हैं। इस चरण में आत्मा को आकार दिया जाता है, उसका मानसिक और आध्यात्मिक विकास किया जाता है, ताकि वह परम सत्य तक पहुँचने के योग्य बन सके। वहाँ की बातें शब्दों में बयान नहीं की जा सकतीं। यह अवस्था इतनी गहरी और दिव्य होती है कि इसे कोई शब्दों में नहीं कह सकता। यह केवल अनुभव किया जा सकता है। अगर कोई इसे समझाने की कोशिश करे, तो वह पछताएगा। क्योंकि यह आध्यात्मिक अनुभव शब्दों से परे है, इसे समझाने की कोशिश करने पर व्यक्ति अधूरा महसूस करेगा, क्योंकि शब्द इसकी गहराई को पूरी तरह नहीं पकड़ सकते।
वहाँ पर ध्यान, बुद्धि, और मन को शुद्ध किया जाता है। इस खंड में आत्मा की चेतना (सुरति), समझ (मति), मन, और बुद्धि को परिशुद्ध कर उसे सत्य की ओर अग्रसर किया जाता है। वहाँ पर वीरों (संतों) और सिद्धों (योगियों) की समझ का निर्माण होता है। इस अवस्था में व्यक्ति संतों, ऋषियों और महापुरुषों की तरह गहरी आध्यात्मिक समझ प्राप्त करता है। वह अपने अहंकार को छोड़कर पूर्ण ज्ञान की ओर बढ़ता है।
करम खंड की बाणी जोरु ॥
तिथै होरु न कोई होरु ॥
तिथै जोध महाबल सूर ॥
तिन महि रामु रहिआ भरपूर ॥
तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥
ता के रूप न कथने जाहि ॥
ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥
जिन कै रामु वसै मन माहि ॥
तिथै भगत वसहि के लोअ ॥
करहि अनंदु सचा मनि सोइ ॥
सच खंडि वसै निरंकारु ॥
करि करि वेखै नदरि निहाल ॥
तिथै खंड मंडल वरभंड ॥
जे को कथै त अंत न अंत ॥
तिथै लोअ लोअ आकार ॥
जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ॥
वेखै विगसै करि वीचारु ॥
नानक कथना करड़ा सारु ॥३७॥
“करम खंड” (कर्म क्षेत्र) में ईश्वर की शक्ति का वर्चस्व है, वहाँ और किसी की शक्ति नहीं चलती। वहाँ पर महान योद्धा और बलशाली लोग निवास करते हैं, और उनके भीतर भी राम (परमात्मा) व्याप्त हैं। वहाँ की सुंदरता और महिमा इतनी अद्भुत है कि उसका वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं। वहाँ रहने वाले लोग न तो मरते हैं और न ही किसी के धोखे में आते हैं, क्योंकि उनके हृदय में ईश्वर (राम) बसते हैं। वहाँ सच्चे भक्त निवास करते हैं, जो ईश्वर के नाम में लीन होकर आनंदमय जीवन जीते हैं।
“सच खंड” (सत्य का क्षेत्र) में निरंकार (बिना रूप वाला परमात्मा) स्वयं निवास करता है और अपने सृजन को प्रेमपूर्वक देखता है। वहाँ अनगिनत ब्रह्मांड, लोक और आकाशमंडल मौजूद हैं, जिनका कोई अंत नहीं। अलग-अलग लोकों में विविध आकार और जीव हैं, और वे सभी परमात्मा के आदेशानुसार चलते हैं। परमात्मा अपने सृजन को देखकर प्रसन्न होता है, परंतु उसकी महिमा का पूरा वर्णन करना बहुत कठिन है।
जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥
अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥
भउ खला अगनि तप ताउ ॥
भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि ॥
घड़ीऐ सबदु सची टकसाल ॥
जिन कउ नदरि करमु तिन कार ॥
नानक नदरी नदरि निहाल ॥३८॥
डर (भय) को धौंकनी बनाओ और तप (धैर्य और कड़ी मेहनत) को आग मानो। सही मार्ग पर चलने के लिए भय और अनुशासन की आवश्यकता होती है, जो सोने को परखने वाली आग की तरह काम करता है।
प्रेम (भक्ति) को पात्र बनाओ और उसमें अमृत (परम सत्य, ज्ञान) डालो। जीवन में प्रेम और भक्ति का पात्र ही सच्चा आनंद और अमृत रस धारण करने योग्य होता है।
सच्चे शब्दों (नाम-सुमिरन) को टकसाल (असली सिक्का ढालने की जगह) बनाओ। सच्चे और पवित्र शब्द ही आत्मा को मजबूत और निर्मल बनाते हैं। जिन पर गुरु की कृपा और सच्चा कर्म होता है, वही इस मार्ग पर चल पाते हैं।
सही मार्ग पर चलने के लिए भगवान की कृपा और अच्छे कर्म आवश्यक हैं। जिन पर परमात्मा की विशेष कृपा होती है, वे आनंदित हो जाते हैं। भगवान की कृपा ही सच्ची खुशी और मुक्ति का मार्ग है।
Note –
सिख धर्म के अनुसार, आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा को पाँच प्रमुख चरणों या “खंडों” में विभाजित किया गया है। इन्हें पंच खंड (पाँच खंड) कहा जाता है। यह विवरण जपुजी साहिब की 34वीं से 38वीं पौड़ियों में गुरु नानक देव जी द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
पाँच खंड इस प्रकार हैं:
- धरम खंड (न्याय और कर्तव्य का क्षेत्र)
- ज्ञान खंड (ज्ञान का क्षेत्र)
- सरम खंड (तपस्या और प्रयास का क्षेत्र)
- करम खंड (कृपा और शक्ति का क्षेत्र)
- सच खंड (सत्य और मुक्ति का क्षेत्र)
आत्मा ईश्वर तक पहुँचने के लिए इन चरणों से होकर गुजरती है। हर खंड आत्मा की उन्नति के एक विशेष स्तर को दर्शाता है।
1. धरम खंड (न्याय और कर्तव्य का क्षेत्र) – धरम खंड वह पहला स्तर है जहाँ आत्मा अपने कर्मों के अनुसार न्याय प्राप्त करती है। यह वह स्थान है जहाँ हर आत्मा के जीवन में किए गए अच्छे और बुरे कर्मों का मूल्यांकन किया जाता है।
इस खंड में न्याय की प्रधानता होती है। यहाँ यह निर्धारित किया जाता है कि आत्मा अगले स्तर पर जाने योग्य है या नहीं। इस स्तर पर व्यक्ति को यह समझना आवश्यक होता है कि धर्म (कर्तव्य) का पालन करना क्यों आवश्यक है। नैतिकता, सेवा, और परोपकार जैसे सिद्धांत इस खंड में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ब्रह्मांड में अनगिनत जीव, तत्व, देवता और ऋषि-मुनि मौजूद हैं, लेकिन सत्य की राह पर चलना ही सबसे बड़ा धर्म है।
2. ज्ञान खंड (ज्ञान का क्षेत्र) – ज्ञान खंड वह अवस्था है जहाँ आत्मा को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। जब व्यक्ति धर्म (कर्तव्य) को समझ लेता है, तब वह ज्ञान की खोज करता है। यह ज्ञान व्यक्ति को सत्य और सृष्टि की वास्तविकता का बोध कराता है। यहाँ आत्मा को यह एहसास होता है कि सृष्टि कितनी विस्तृत और जटिल है। इसमें आत्मा को ईश्वर और उसके बनाए नियमों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ संगीत (नाद), आनंद और दिव्यता का अनुभव होता है।
इस खंड में व्यक्ति सच्चे ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) को प्राप्त करता है।
3. सरम खंड (श्रम यानी मेहनत, तपस्या और प्रयास का क्षेत्र) – सरम खंड वह स्थान है जहाँ आत्मा अपने आध्यात्मिक और नैतिक सुधार के लिए प्रयास करती है। इस खंड में आत्मा को ईश्वर की ओर जाने के लिए कठिन साधना और तपस्या करनी होती है। इस अवस्था में व्यक्ति को अपनी बुराइयों पर नियंत्रण पाना होता है। आत्मा को ईश्वर तक पहुँचने के लिए पूर्ण समर्पण और परिश्रम करना पड़ता है। यहाँ आत्मा का रूप और विचार शुद्ध होने लगते हैं।
इस स्तर पर आत्मा को बाहरी दुनिया से हटकर अपने आंतरिक सुधार पर ध्यान देना होता है।
4. करम खंड (कृपा और शक्ति का क्षेत्र) – करम खंड वह स्थान है जहाँ आत्मा को ईश्वर की कृपा और दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। यह वह चरण है जहाँ आत्मा अपनी सांसारिक सीमाओं को पार कर लेती है और दिव्यता के करीब पहुँचती है। इस स्तर पर व्यक्ति अपनी चेतना को ऊँचा उठाता है और शक्तिशाली आत्माओं की श्रेणी में आता है। इस खंड में आत्मा को ईश्वर के करीब लाने वाली कृपा प्राप्त होती है। इस क्षेत्र में आत्मा को किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता।
यह क्षेत्र महान योद्धाओं और संतों का होता है। यहाँ तक पहुँचने वाली आत्माएँ संसार में धर्म की स्थापना करती हैं और सत्य के मार्ग पर अडिग रहती हैं।
5. सच खंड (सत्य और मुक्ति का क्षेत्र) – सच खंड वह अंतिम और सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। यह आत्मा की पूर्ण मुक्ति की अवस्था है, जहाँ केवल सत्य का वास होता है। इस अवस्था में आत्मा परमात्मा के साथ एक हो जाती है। यहाँ कोई भय, मोह, द्वेष या भ्रम नहीं रहता। यह सच्ची शांति और आनंद की अवस्था है। इस खंड में केवल सत्य का शासन होता है और वहाँ सभी आत्माएँ परम आनंद में रहती हैं। यहाँ ईश्वर अपने सृष्टि को देखता और नियंत्रित करता है।
सलोकु ॥
पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥
दिवसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरमु हदूरि ॥
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥
जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥
नानक ते मुख उजले केती छुटी नालि ॥१॥
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